Tuesday, February 24, 2009

बैसाखी /कविता

बैसाखी
**************
बैसाखी तो बे -साखी है
निर्जीव लाचार
जो स्वयं चलने के लिऎ
सहारा ढ़ूढ़ती है
लेकिन,हम पाल लेते भ्रम
बैसाखियों के सहारे
जीवन गुजार लेने का ।

बैसाखी कितनी भी मजबूत क्यों न हो
हमेशा ढ़ूढ़ती है सहारा लंगडे पैरों का
मगर,
पैर भले ही लंगडा हो
फिर भी कोशिश कर सकता है
अपने शरीर का बोझा उठाने की ।
अपाहिज होते हुऎ भी
दौड़ सकता है सरपट
कंटीली राहों पर
फिर भी न जाने क्यों
लोग करने लगते हैं विश्वास
स्वयं के पैरों से अधिक बैसाखियों का ...?
और.........
भूल जाते हैं
बैसाखी तो स्वयं बेसहारा है
जो ढ़ूढ़ती है सहारा
किसी बेसहारे का
क्योंकि,उसे अपना अस्तित्व
बनाऎ रखना है
स्वयं की मंजिल के लिऎ
तुम्हें अपाहिज बनाऎ रखना
उसकी नियती है
अब जिन्दगी आपकी है
निर्णय आपको लेना है
जिन्दगी गुजारनी है
बैसाखियों के सहारे
या मजबूत बनाने हैं अपने पैर
मंजिल भी है
बैसाखियां भी हैं
और तुम्हारे विश्वास की बाट जोहते
तुम्हारे घोषित लाचार पैर............??


डा.योगेन्द्र मणि



व्यंग्य ,कविता /श्रीमती जी

श्रीमती जी
****************
एक बार ,
श्रीमती जी को न जाने
कैसे एक नेक विचार आया
कि हमारी कुछ रचनाओं के
टुकडे टुकडे कर हमारे ही सामनें
चूल्हे में जा जालाया ।
हम सकपकाये
और धीरे से बड़बड़ाऎ
भाग्यवान..............
यह क्या कर ड़ाला.....?
मेरे जिगर के टुकडे टुकडे कर
मेरे ही सामने जला ड़ाला
तुम्हें मालूम है
कवि दिन रात रोता है
तब जा कर
कविता का जन्म होता है ।

वह तपाक से बोली....
भाड़ में जाऎ
तुम्हारी यह कविता
इस रद्दी को नहीं जलाती
तो खाना कैसे बनाती...?
और आप भी आज देख लिया
तो चिल्ला रहे हैं ।
आपको मालूम है
घर में जब जब
ईंधन का अभाव आया
मैनें इन्हीं रचनाओं से
काम चलाया ।

उनकी समझदारी का राज
हम आज समझ पाऎ
फिर भी होट फडफडाऎ
प्रिय..........!
क्या तुमने पहले भी
रचनाओं को जलाया...?

वह तपाक से बोली-
नहीं जलाती तो खाना कैसे बनाती
क्या मैं स्वयं जल जाती...?
मगर स्वयं भी कैसे जलती
एक महीने से केरोसिन की पीपियां
खाली हैं
कल से आटे के कन्सतर में भी
कंगाली है
घी का डब्बा हो गया तली तक खाली
और शक्कर,
आज उसने भी हड़ताल कर ड़ाली

लेकिन ...
आपकी समझ में कहाँ आती है
कान पर जूँ तक कहाँ रैंग पाती है
कितनी बार समझाया
कि ऎसा लिखो
जो छप जाऎ बिक जाऎ
सरकारी सम्मान पाऎ
मौके का फायदा क्यों नहीं उठाते
मंन्त्री जी के रिश्तेदार
क्यों नहीं बन जाते...?
यदि गघे को बाप बनाने से
अपना उल्लू सीधा हो जाए
तो उसमें आपका क्या जाता है
बाप तो फिर भी
बाप कहलाता है

लेकिन ,
हम उन्हें कैसे समझाते
कि यह लिखनी स्वतंत्र है
जो उचित होगा लिखेगी
अंतिम क्षण तक संघर्ष करेगी
मगर तिजोरी की कैद
कभी स्वीकार नहीं करेगी॥

डा. योगेन्द्र मणि

व्यंग्य

नेता बनाम कुत्ता
-------------------------
तथाकथित पेशेवर नेता को
कुत्ते ने काटा।
कुत्तों की पूरी जमात ने उसे ड़ांटा
यह तूने क्या कर ड़ाला
जिसका काटा
आई।ए।एस अफ़सर तक
पानी नहीं माँगता
तूने उसे काट ड़ाला।
यदि तेरे काटने से
नेता जी में
वफ़ादारी का गुण आ गया
और तुझपर
नेताजी का खून असर जमा गया
तो हम बरबाद हो जायेगें
राह चलते लोग तुझे
नेता बतलायेगें ।
काश........!
देश के सारे नेताओं को
कुत्ते से कटवा दिया जाए
और नेताओं में
थोड़ा सा भी अंश
वफ़ादारी का आ जाऎ
तो मेरा देश महान का सपना
साकार हो जाऎ....॥

डा. योगेन्द्र मणि
१/२५६ गणेश तालाब, कोटा ३२४००९
मो.९३५२६१२९३९