Monday, July 27, 2009

गीत

यूँ गुजरते रहे जाने कितने बरस
हम बहारों को ही ताकते रह गये
हुऐ दिन हवा जाने कब क्या हुआ
हम गुबारों को ही ताकते रह गये ॥

बरसों से टिकी आस पर सांस है
डिग्रियों की गले में पडी फांस है
आप रग रग में नश्तर चुभोते रहे
हम बीमारों को ही ताकते रह गये ॥

है मेरे गाँव की फाइलों में सड़क
बिन पानी गई सारी मिट्टी तिडक
झूंठी पत्तल में बचपन झगडता रहा
हम सितारों को ही ताकते रह गये ॥

आप पर तो रहा है खुदा का करम
सूखी आंते लगें जुल्फ के जैसे खम
आप सागर में मौजें मनाते रहे
हम किनारों को ही ताकते रह गये ॥

ख्वाब में हम धरोंदें बनाते रहे
ज़ख्म अपने ही खुद सहलाते रहे
खॊ गये आप जाने कहाँ खो गये
हम कतारों को ही ताकते रह गये ॥


डॉ. योगेन्द्र मणि

Monday, July 13, 2009

कुर्सी //व्यंग्य

कुर्सी

कुर्सी बहुत महान है
अफसर से वर्कर तक
नेता से अभिनेता तक
प्रत्येक प्राणी
इसका गुलाम है ॥

बड़ी कुर्सी के आगे
छोटी कुर्सी की साजिश
प्रायः नाकाम है ॥

राजनीतिक भाषा में
भारतीय परिभाषा
कुर्सी की प्रत्येक
टांग से चिपके हैं
करोड़ों अरमान ॥

कुछ सत्ता के बीमार
आदत से लाचार
कुर्सी की टांग खींचना है
जिनका नैतिक दायित्व
ताकि कुर्सी डगमगा जाऐ
कुर्सी वाला
जमीन पर आ जाऐ
और किसी भी तरह कुर्सी
अपने कब्जे में आ जाऐ ॥


डॉ. योगेन्द्र मणि