Tuesday, February 24, 2009

व्यंग्य ,कविता /श्रीमती जी

श्रीमती जी
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एक बार ,
श्रीमती जी को न जाने
कैसे एक नेक विचार आया
कि हमारी कुछ रचनाओं के
टुकडे टुकडे कर हमारे ही सामनें
चूल्हे में जा जालाया ।
हम सकपकाये
और धीरे से बड़बड़ाऎ
भाग्यवान..............
यह क्या कर ड़ाला.....?
मेरे जिगर के टुकडे टुकडे कर
मेरे ही सामने जला ड़ाला
तुम्हें मालूम है
कवि दिन रात रोता है
तब जा कर
कविता का जन्म होता है ।

वह तपाक से बोली....
भाड़ में जाऎ
तुम्हारी यह कविता
इस रद्दी को नहीं जलाती
तो खाना कैसे बनाती...?
और आप भी आज देख लिया
तो चिल्ला रहे हैं ।
आपको मालूम है
घर में जब जब
ईंधन का अभाव आया
मैनें इन्हीं रचनाओं से
काम चलाया ।

उनकी समझदारी का राज
हम आज समझ पाऎ
फिर भी होट फडफडाऎ
प्रिय..........!
क्या तुमने पहले भी
रचनाओं को जलाया...?

वह तपाक से बोली-
नहीं जलाती तो खाना कैसे बनाती
क्या मैं स्वयं जल जाती...?
मगर स्वयं भी कैसे जलती
एक महीने से केरोसिन की पीपियां
खाली हैं
कल से आटे के कन्सतर में भी
कंगाली है
घी का डब्बा हो गया तली तक खाली
और शक्कर,
आज उसने भी हड़ताल कर ड़ाली

लेकिन ...
आपकी समझ में कहाँ आती है
कान पर जूँ तक कहाँ रैंग पाती है
कितनी बार समझाया
कि ऎसा लिखो
जो छप जाऎ बिक जाऎ
सरकारी सम्मान पाऎ
मौके का फायदा क्यों नहीं उठाते
मंन्त्री जी के रिश्तेदार
क्यों नहीं बन जाते...?
यदि गघे को बाप बनाने से
अपना उल्लू सीधा हो जाए
तो उसमें आपका क्या जाता है
बाप तो फिर भी
बाप कहलाता है

लेकिन ,
हम उन्हें कैसे समझाते
कि यह लिखनी स्वतंत्र है
जो उचित होगा लिखेगी
अंतिम क्षण तक संघर्ष करेगी
मगर तिजोरी की कैद
कभी स्वीकार नहीं करेगी॥

डा. योगेन्द्र मणि

3 comments:

  1. हा हा हा.....

    बहुत ही बढिया रचना के लिए बधाई स्वीकार करें

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  2. एक निवेदन है आपसे कि आप अपने ब्लॉग से वर्ड वैरिफिकेशन हटा दें ।

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