Wednesday, December 30, 2009

फिर एक बार // कविता

फिर एक बार
_________


आओ....
बदल डालें दीवार पर
लटके कलेन्डर
फिर एक बार,

इस आशा के साथ
कि-
शायद इसबार हमें भी मिलेगा
अफसर का सद व्यवहार
नेता जी का प्यार
किसी अपने के द्वारा
नव वर्ष उपहार.

सारे विरोधियों की
कुर्सियां हिल जाऐं
मलाईदार कुर्सी
अपने को मिल जाऐ.

सुरसा सी मँहगाई
रोक के क्या होगा ?
चुनावी मुद्दा है
अपना भला होगा .

जनता की क्यों सोचें ?
उसको तो पिसना है
लहू बन पसीना
बूँद-बूँद रिसना है

रिसने दो, देश-हित में
बहुत ही जरूरी है
इसके बिन सब
प्रगति अधूरी है.

प्रगति के पथ में
एक साल जोड दो
विकास का रथ लाकर
मेरे घर पे छोड दो.

बदल दो कलेन्डर
फिर एक बार
आगत का स्वागत
विगत को प्रणाम
फिर एक बार......!!

डॉ.योगेन्द्र मणि

Monday, December 28, 2009

शान्ता क्लोज़

शान्ता क्लोज़ ने
दरवाजा खटटाया
छुट्टी के दिन भी सुबह-सुबह
आठ बजे ही आ जगाया
बोला
आँख फाडकर क्या देखता है
मुझे पहिचान
जो भी चाहिऐ माँग .

हम बडबडाऐ-
सुबह-सुबह क्यों दिल्लगी करते हो
किसी दूसरे दरवाजे पर जाओ
सरकारी छुट्टी है ,सोने दो
तुम भी घर जाकर सो जाओ.
वह हमारी समझदारी पर मुस्कराया
पुनः आग्रह भरी निगाहों का
तीर चलाया।

हामने भी सोच -
चलो आजमाते हैं
बाबा कितने पानी में
पता लगाते हैं.

हम बोले -
बाबा, हमारा ट्रान्सफर
केंसिल कर दो
मंत्री जी के कान में
कोई ऐसा मंत्र भर दो
जिससे उनको लगे
हम उनके वफादार हैं
सरकार के सच्चे पहरेदार हैं.

वो मुस्कराया-
यह तो राजनैतिक मामला है
हम राजनीती में टांग
नहीं फसाते
नेताओं की तरह
चुनावी आश्वासन
नही खिलाते
कुछ और माँगो.

हम बोले ठीक है-
बेटे की नौकरी लगवादो
घर में जवान बेटी है
बिना दहेज के
सस्ता सुन्दर टिकाऊ
दामाद दिलवादो
मंहगाई की धार
जेब को चीरकर
सीने के आरपार
हुई जाती है
धनिया के पेट की
बलखाति आँतों को
छिपाने की कोशिश में
तार-तार हुई कमीज भी
शरमाती है
नरेगा योजना में
उसका नाम भी है
रोजगार भी है
भुगतन भी होता है
लेकिन उसकी मेहनत का
पूरा भुगतान
उसकी जेब तक पहुँचा दो.


वृद्धाश्रमों की चोखट पर
जीवन के अंतिम पडाव की
इन्तजार में
आँसू बहाते
बूढे माँ-बाप की औलादों के
सीने में
थोडा सा प्यार जगा दो

एक दिन चाकलेट खिलाकर
बच्चों को क्या बहलाते हो
मुफ्त में सोई इच्छाओं को
क्यों जगाते हो ?

वह सकपकाया-
सब कुछ समझते हुऐ भी
कुछ नहीं समझ पाया

लेकिन हम समझ गये-
यह भी किसी संभ्रांत पति की
तरह लाचार है
या मेरे
जावान बेटे की तरह
बेरोजगार है
हो सकता है
यह भी हो
मेरे देश की तरह
महामारी का शिकार
या फिर इसकी झोली को
मिलें हों सीमित अधिकार.

वैसे भी हमारा देश
त्योहारों का देश है
पेट भरा हो या खाली
कितनी भी भारी हो
जेबों पर कंगाली
हर त्योहार देश की शान है
मेरा देश शायद
इसीलिऐ महान है ॥


डॉ. योगेन्द्र मणि

Friday, December 4, 2009

जाने क्यों आज हम खलने लगे हैं....

जाने क्यों आज हम खलने लगे हैं
अब वो मुँह फेर कर चलने लगे हैं।

उनसे शिकवा भी क्या करें यारों
साँप आस्तीन में पलने लगें हैं ।

जब से सच को ही सच कहा हमनें
मूँग छाती पे वो दलने लगे हैं ।

ऊँची कुर्सी का कैसा जादू है
रिश्ते सब बर्फ से गलने लगे हैं ।

दूध से गर जले हों चर्चा करें
अब तो वे छाछ से जलने लगे हैं ॥


डॉ. योगेन्द्र मणि

Friday, November 27, 2009

मैं भी पी लूँ

मैं भी पी लूँ
_____________
वे पीते हैं , मैं भी पी लूँ
सोचा था ऐसे ही जी लूँ
मेरी जान की दुश्मन दुनिया
यूँ ही कब जीने देती है
चुपचाप कहाँ पीने देती है...?

प्याले से कोई मदिरालय में
कोई पीता देवालय में
ज्ञान की सरिता बहाने वाला
देखो पीता विद्यालय में

मंत्री मंत्रालय में पीता
कोई पीता सचिवालय में
चपरासी बाहर ही पीता
अफसर पीता कार्यालय में

सेठ चोर साहूकार दरोगा
नैनों ही नैनों से पीते
अबला की योवन रस गगरी
पीते देखे वैशालयों में

लेकिन मैनें भी पीना चाहा
नये सिरे से जीन चाहा
तुम बोल उठे कि मैं पीता हूँ
तुम सा ही जीवन जीता हूँ

रक्त रूप योवन और मदिरा
तुम पीते मैं कब पीता हूँ
जब भी हुआ विवाद
सदा ही तुम जीते मैं कब जीता हूँ

अपनी ही सूनी आँखों के
केवल अश्रु नीर पीता हूँ
खुशियों की छितराई गुदडी
गम की सूंई से सीता हूँ

सोचा था ऐसे ही जी लूँ

वे पीते हैं मैं भी पी लूँ....॥


डॉ. योगेन्द्र मणि

Tuesday, September 15, 2009

काव्य प्रेमी/व्यंग्य

काव्य -प्रेमी /व्यंग्य

एक काव्य प्रेमी हमारे पास आये
बोले
बन्धु कोई कविता सुनाओ
उनके काव्य प्रेम को देख
कविता की प्रसव पीडा ने हमें आन सताया
हमने श्रंगार की प्रथम डोज पिलाने के चक्कर में
चन्द्रमुखी नायिका के
गदराये यौवन वाली रचना सुनाई
उन्होंने तुरन्त टांग अडाई
तुम कौनसी सदी के कवि हो भाई
ऐसी रचनाऐं दसवीं के कोर्स में आती हैं
छात्रों को मीठे सपनें दिखाती हैं
तुम भी मीठे सपने दिखाने लगे
गदराऐ यौवन की बाते बताने लगे

शायद तुमने नहीं देखी
दहेज की आग में झुलसती हुई नवयौवनाऐं
सूखी छाती से चिपके दुध-मुँहे बच्चे
बूढे माँ-बाप की खातिर
यौवन के आगमन से बेखबर
ओफिस में कलम धिसति युवतियां

उनका तैंवर देख
गाँधी के तीन बन्दर की कविता सुनाई
वे भन्नाऐ-

बोले-
लगता है तुम
बन्दरों की सभ्यता का
जीता जागता नमूना हो
वैसे भी गाँधी की कविता तुमने क्यों सुनाई
क्या सारे नेता मर गऐ
और गाँधीवाद तुम्हारे नाम कर गऐ
अभी तो देश में नोटों की राजनीति जिन्दा है
जिससे गाँधी की आत्मा तक शर्मिन्दा है
क्यों दाल भात में मूसल चन्द बने जाते हो
दूसरी कविता क्यों नहीं सुनाते हो ?

हमने कहा
आजाद ,भगत या सुभाष की कविता सुनाऐ
वे बोले-
आखिर आप चाहते क्या हैं
क्या हम भी शहीद हो जाऐ ?
यदि आजाद,भगत या सुभाष की कविता सुनाओगे
तो शान्ती भंग करने के आरोप में
अन्दर हो जाओगे

हम झल्लाऐ-
आखिर आप चाहते क्या हैं...?
आप कहें तो हम आत्म हत्या कर जाऐं..?
बोले कर लो देश का भला होगा
ऐसी कविताओं से न जाने अब तक
कितनों को छला होगा
सुनानी ही है

तो कौमी एकता के गीत गाओ
आतंकवाद मिटाने में स्वर मिलाओ
मंहगाई के साथ दौड लगाने के गुर बताओ
सरकारी सूत्रीय कार्यक्रमों में
दो-चार सूत्र अपने भी जोड जाओ
सस्ते टी.वी और मोबाइल के सपने जगाओ

हम बोले भय्याजी-
जिनकी आँतों पर ताले पडे हों
आँखों में आंसू के समन्दर भरे हों
उन्हें सुत्रों की चादर कब तक उढाओगे
कडी मेहनत के नाम पर
कब तक तडफाओगे
जिनके सर पर न छप्पर
न पैरों में जूती
उनको क्या भैय्याजी
मोबाइल और टी.वी खिलाओगे ...??


डॉ. योगेन्द्र मणि

Monday, July 27, 2009

गीत

यूँ गुजरते रहे जाने कितने बरस
हम बहारों को ही ताकते रह गये
हुऐ दिन हवा जाने कब क्या हुआ
हम गुबारों को ही ताकते रह गये ॥

बरसों से टिकी आस पर सांस है
डिग्रियों की गले में पडी फांस है
आप रग रग में नश्तर चुभोते रहे
हम बीमारों को ही ताकते रह गये ॥

है मेरे गाँव की फाइलों में सड़क
बिन पानी गई सारी मिट्टी तिडक
झूंठी पत्तल में बचपन झगडता रहा
हम सितारों को ही ताकते रह गये ॥

आप पर तो रहा है खुदा का करम
सूखी आंते लगें जुल्फ के जैसे खम
आप सागर में मौजें मनाते रहे
हम किनारों को ही ताकते रह गये ॥

ख्वाब में हम धरोंदें बनाते रहे
ज़ख्म अपने ही खुद सहलाते रहे
खॊ गये आप जाने कहाँ खो गये
हम कतारों को ही ताकते रह गये ॥


डॉ. योगेन्द्र मणि

Monday, July 13, 2009

कुर्सी //व्यंग्य

कुर्सी

कुर्सी बहुत महान है
अफसर से वर्कर तक
नेता से अभिनेता तक
प्रत्येक प्राणी
इसका गुलाम है ॥

बड़ी कुर्सी के आगे
छोटी कुर्सी की साजिश
प्रायः नाकाम है ॥

राजनीतिक भाषा में
भारतीय परिभाषा
कुर्सी की प्रत्येक
टांग से चिपके हैं
करोड़ों अरमान ॥

कुछ सत्ता के बीमार
आदत से लाचार
कुर्सी की टांग खींचना है
जिनका नैतिक दायित्व
ताकि कुर्सी डगमगा जाऐ
कुर्सी वाला
जमीन पर आ जाऐ
और किसी भी तरह कुर्सी
अपने कब्जे में आ जाऐ ॥


डॉ. योगेन्द्र मणि

Wednesday, May 13, 2009

रघुपतिराघव राजा राम
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रघुपति राघव राजा राम, करदे सबका काम तमाम
सरपंच,एम.एल.ए.या एम.पी कुछ तो मुझे बना भगवान ॥
एक बार दिलवादे कुर्सी ,फिर सबकी करवा दूँ कुर्की
मुझको भी रोजगार मिलेगा,तेरा कारोबार चलेगा
जो भी आता तेरी गाता, चूंस-चूंस जनता को खाता
नेताओं के भारे गॊदाम,काम करें न एक छदाम
उसने सबको दिया है धोका, मुझको भी तो दे दे मौका
सब आश्वासन तेरे नाम,रघुपति राघव राजा राम....॥
गाँधी तेरा लेकर नाम,खूब किया जग में बदनाम
रिश्वत खोरों का है मोल, सच बोलो तो बिस्तर गोल
घोटालों पर जाँच का ताला, कुर्सी तेरा खेल निराला
कुर्सी मैय्या कुर्सी बाप,मन मैल पर कुर्ता साफ
पूरे कर मेरे अरमान, रघुपति राघव राजा राम....॥
अंधेर नगरी चोपट राजा, अब तो बजा दे उनका बाजा
खाया अब तक जितना उसने ,पूरा नहीं दिलादे आधा
भूख गरीबी और कंगाली जैसे नेता जी की साली
भूखे भजन न होय गोपाला, तेरी फसल खा गया लाला
अब तो सुन लो श्री भगवान, रघुपति राघव राजा राम....॥

Saturday, May 9, 2009

कविता /मेरी माँ

मदर्स डे पर एक कविता

मेरी माँ

मेरी माँ ओ स्नेहमयी माँ
कैसे तेरा गुण-गान करूँ मैं
पौधा हूँ तेरी बगिया का
शत-शत तुझे प्रणाम करू मैं ॥
तूफानों से लडी हमेशा
हँस-हँस कर मेरे ही लिऐ
नो मास तक की थी तपस्या
तूनें माँ मेरे ही लिऐ
अपने रक्त का दूध बनाकर
सींचा था मेरे जीवन को
तेरे रक्त की बूँद-बूँद का
कैसे यहाँ बखान करूँ मैं
पौधा हूँ तेरी बगिया का.............॥
इन्द्रासन सम गोद तेरी है
अन्य सभी सुख झूँठे हैं
फीके जग के मधुर बोल
माँ तेरी बोल अनूठे हैं
अपनी चिन्ता छोड सदा ही
सवांरा था मेरे जीवन को
मुख से कुछ न बोला मैं
तू समझ गई मेरे मन को
तेरी तीव्र परख शक्ति का
कैसे यहाँ बखान करू मैं
पौध हूँ तेरी बगिया का..............॥
पैरों चलना सीखा ही था
डगमग करता चलता था
उल्टे-सीधे कदम धरा पर
पडे और मैं गिर जाता था
तेरे हृदय में जाने कैसा
कोलाहल सा मच जाता था
उठा मुझे तू ममतामयी
बाँहों में भर लेती थी
धूल पौछना छोड प्यार की
वर्षा सी कर देती थी
तेरी ममता की समता
जग में किससे आज करू मैं
पौधा हूँ तेरी बगिया का.................॥
धुँधली स्मृति जागृत होते ही
मेरा तन मन थर्राता है
देख तेरा अदभुत साहस
विस्मय में यह पड जाता है
भूखी रहती अगर कभी तू
मेरा पेट न खाली रहता
कैसी भी हो विपदा तुझपर
तेरा मुख कुछ भी न कहता
ओ सत्साहसनी,शक्तिमूर्ति
तेरी किससे तुलना करूँ मैं
पौधा हूँ तेरी..............................॥
ममता के आँचल के वे दिन
सुख के दिन थे
मेरे लिऐ बचपन के वे दिन
स्वर्णमयी दिन थे
आज याद बचपन आता
यौवन को सूना बतलाता
सब सामंजस, सब यश-अपयश
नाशवान है
अक्षय रहेगी कीर्ति तेरी
स्वार्थी जग में किन शब्दों से
तेरी महिमा बखान करूँ मैं
पौधा हूँ तेरी बगिया का माँ
शत-शत तुझे प्रणाम करूँ मैं ॥

Thursday, April 30, 2009

आदमी को कहाँ- कहाँ खोजें.....

आदमी को कहाँ-कहाँ खोजें
यहाँ सब खोखले घर बार नजर आते हैं ॥

हाय जम्हूरियत है ये कैसी
गोलियों के चलन भरमार नजर आते हैं ।।

इतने चुप क्यों हैं मजरा क्या है
आप मजबूरी का अवतार नजर आते हैं ।।

क्या हुआ पोलियो अरमानों को
आप किस्मत से ही लाचार नजर आते हैं ॥

उसको सज़दा करें या ठुकराऐं
खुदा के वेष में बटमार नजर आते हैं ।।

लहू है गर्म जिस्म ठंड़ा क्यों
दिलो दीमाग से बीमार नजर आते हैं ॥

डॉ.योगेन्द्र मणि

Tuesday, April 28, 2009

यूँ गुजरते रहे जाने कितने बरस

यूँ गुजरते रहे जाने कितने बरस
हम बहारों को ही ताकते रह गये
हो गये दिन हवा जाने ये क्या हुआ
हम गुबारों को ही ताकते रह गये।

बरसों से टिकि आस पर सांस है
डिग्रियों की गले में पडी फांस है
आप रग रग में नश्तर चुभाते रहे
हम बीमारों को ही ताकते रह गये।

आपका राज है कर लो जितने सितम
सूखी आंतें लगें ज़ुल्फ के जैसे ख़म
आप सागर में मौजे मनाते रहे
हम किनारों को ही ताकते रह गये ।

ख्वाब में हम घरोंदे बनाते रहे
ज़ख्म अपने ही खुद सहलाते रहे
खो गये आप जाने कहाँ खॊ गये
हम कतारों को ही ताकते रह गये ॥

Saturday, April 25, 2009

इस चमन की अब हिफ़ाजत आपके हाथों मे है

उन शहीदों की विरासत आपके हाथों में है
इस चमन की अब हिफ़ाजत आपके हाथों में है

नाम गाँधी का कलंकित और हो पाये नहीं
देश संसद की सजावट आपके हाथों में है

आपके हाथों में है इस देश की पतवार अब
शहर भर की अब बसावट आपके हाथों में है

अब कोई जयचन्द अपना सर उठा पाये नहीं
इतिहास की हर एक लिखावट आपके हाथों में है ।।



Thursday, April 23, 2009

आजादी की रेल
आजदी की देखो रेल धक्का - मुक्की पेलम - पेल
उनकी तो हर रोज दिवाली तेरे घर में बीता तेल।
आतंकवाद का रिसता फोड़ा देखो अब नासूर बना
मेहनतकश की झोंपड़ियों से अभी उजाला दूर घना
भ्रष्टाचार की फसल बो रहे देखो ये सरकारी अफसर
काट -बांट घर ले जाते हैं राजनीति छुट्भैय्ये वर्कर
राजनीति की चालें झेल आजादी की देखो रेल........॥


मंदिर मस्जिद मसला गाओ भूख गरीबी से तर जाओ
राम रहीम के लहू से भीगे बन्देमातरम्‌ मिलकर गाओ
नागफणी की बाढ़ लगी है शुद्ध हवा आयात कराओ
आश्वासन ही मूल मंत्र हो काम न एक छदाम कराओ
राम कृष्ण कुर्सी का खेल आजादी की देखो रेल..............॥


घोटालों पर घोटाला उस पर आयोगों का ताला
बोफोर्स तोप पर जंग लगी हर्षद ने बम चला डाला
आयोगों पर हैं आयोग अजब लगा देखो यह रोग
सत्ता तो अपनी रखैल है जितना चाहे उतना भोग
जाँच हो गई सारी फेल आजादी की देखो रेल........॥


जाग रे भैय्या उसे जगा कदम बढ़ा और आगे आ
क्रान्ती बीज खेतों में बो दे तभी बहेगी शुद्ध हवा
अंधकर का तोड़ो जाल हाथों में ले आज मशाल
गद्दारों के डाल नकेल सरपट दौडेगी फिर रेल
पाप ये उनके अब मत झेल आजादी की ..............॥


डॉ.योगेन्द्र मणि

Wednesday, April 22, 2009

दूर-दृष्टी

दूर-दृष्टी

कडी मेहनत दूर दृष्टी
कडी मेहनत कीजिऐ
पेट की सूखी आँतों को
खूंटी पर टांग दीजिऐ
क्योंकि
आपके पसीने से विदेशी ‌ऋण चुकाऐगें
प्रतिफल में आपको आश्वासन
मिल जायेगें
आप आश्वासन पहिनिऐ
आश्वासन ओढिये
आश्वासन खाइए
आश्वासन आने वाली
पीढी को दे जाइऐ।
दूर-दृष्टी से काम लीजिऐ
भावी पीढ़ी को
कड़ी मेहनत की सीख दीजिऐ ।
और
अच्छी तरह समझा दीजिऐ
सारे जहाँ से अच्छा
हिन्दूस्ता हमारा........!
क्योंकि हम-
गाँधी वादी हैं
सरकारी विचारधारा
समाजवादी है
संविधान धर्मनिरपेक्ष
तथाकथित नेता अवसरवादी हैं
शायद ,इसीलिऐ कहलाता है
मेरा देश महांन ----?
टूटी चप्पल घिसता
पढ़ा-लिखा नौजवान
जनता आतंकवाद ,कुपोषण
भुखमरी की शिकार
फिर भी
तथाकथित नेता
बने पहलवान ॥

डॉ.योगेन्द्र मणि

Monday, April 20, 2009

संसद

संसद
संसद वह रमणीय स्थल है
जहाँ सांसद नामक सभ्यजीव दम भरते हैं
लोकतंत्र,समाजवाद और गाँधीवाद के
वहाँ पड़े शवों की निगरानी करने का
मगर आये दिन फाडे जाते हैं
इन राष्ट्रीय शवों के कफन
लगाई जाती है अनुशासन की गुहार
आपस में की जाती है
गालियों घूंसों और जूतों की बौछार
जहाँ हर सत्र में
बहुमत(..?) द्वारा बनाये जाते हैं
बहुमत को कुचलने के लिऐ
नित नये कानून
जिनकी एक ही मंजिल है
एक ही योजना है
कैसे उतारी जाऐ
जनता के शरीर से ऊन........??
डॉ.योगेन्द्र मणि

Tuesday, April 7, 2009

मेरे शहर की बस

मेरे शहर की बस
मस्तानी चाल से सड़कों पर रैंगती
मेरे शहर की बस
बस क्योंकि बस है
जो संसद सत्र की तरह
कभी भी रुक सकती है
चल सकती है
दल बदलू नेता की तरह
चलते चलते रास्ता तक
बदल सकती है
इसकी इस आदत से बलि के बकरे सा
प्रत्येक यात्री विवश
मेरे शहर की बस...........॥

तीन की सीट पर चिपके हैं छः छः
सीट भी अपाहिज हैं कुछ अपनी टागों से
कुछ टूटी कमर से लाचार
जो यात्री खडे हैं
उन्हें देख के हर कोई कह सकता है
कि इन्हें दरवाजे से नहीं
छत खोल के ऊपर से जमाया गया है
यात्री शुद्ध हवा का सेवन कर सकें
इसलिऐ खिडकियों से शीशा हटाया गया है
दरवाजा तक लगाने का कष्ट
किसीको नहीं उठाना पडता
क्योंकि दरवाजा है ही नहीं ॥

बस के चलने से पहले
कण्डक्टर ने दो चार यात्रियों को
बस में घुसाने के लिऐ
बस का निरीक्षण कुछ इस तरह से किया
जैसे कर्तव्यनिष्ठ अध्यापक
अपने प्रिय छात्र की उत्तर पुस्तिका में
देखता है कि
अंक बढ़ाने का स्थान कहाँ शेष है
और संभावना न होते हुऐ भी
लाद दिया जाता है
अंकों का बोझ बेचारी उत्तर पुस्तिका पर॥

यह कण्डक्टर भी जन सुविघाओं को
ध्यान में रखते हुऐ
टांग देता है कुछ ओर सवारियां
ठीक इस तरह जैसे जनरल स्टोर पर
कुछ आकर्षक नमूने
दुकान के बाहर लटकते हैं
और जिस प्रकार दुकानदार
इन नमूनों का उपयोग
दुकानदारी चलाने के लिऐ करता है
यह कण्डक्टर इन सवारियों का उपयोग
बस के बार बार रूकजाने पर
बस में धक्का लगवाकर
बस चलवाने के लिऐ करेगा ॥

चलते समय बस के इंजन के साथ
ढ़ाचे की आवाज
जैसे गुलाम अली की गज़ल के साथ
भप्पी लहरी का डिस्को संगीत
बस के चारों ओर अंदर- बाहर
उखडी धंसी कीलों का व्यवहार
जैसे खूबसूरत युवतियों के साथ
जवान मनचलों की छेड-छाड ॥

शहर में एक अजनबी ने
ऐसा सुन्दर दृष्य
शायद पहली बार देखा
उसने हमें रोका और बोला
भाईसाहब-
इन यात्रियों को बस से बाहर
कैसे निकाला जायेगा...?
इससे पहले कि हम कुछ कह पाते
वह बोला हम समझ गये
जरूर इस बस की छत में
कोई ढ़क्कन लगा है
जहाँ से रास्ते की सवरियों को
निकाला और लटकाया जायेगा
अंतिम स्टेशन पर
बस की छत को उखाडेगें
फिर उल्टा करके हिलाऐगें
जिससे थैले में भरी रेजगारी की तरह
सभी यात्री जमीन पर पसर जाऐगें ॥

उनके इस सारगर्भित वक्तव्य के बाद
हमारी दलील ठीक इस तरह बेकार थी
जैसे गृह मंत्राणी के सामने हमारा
विवेकपूर्ण वक्तव्य ॥

हम उन्हें कैसे समझाते
कि यह कोई मंदिर की दानपेटी नहीं
जिसमें जब चाहा रुपया डलवा दिया
जब चाहा उल्टा कर हिला दिया
अपनी बारी आयेगी
तब सारी कलाकारी धरी रह जाऐगी
बस में चढ़ने और उतरने की कला
अपने आप आ जाऐगी ॥

डॉ. योगेन्द्र मणि




Sunday, April 5, 2009

गीत// बिजली का कड़कना

गीत
ये बिजली का कड़कना
आँख मिलना,मिलके झुक जाना
ये नाज़ुक लब फड़कना
कह न पाना ,यूँ ही रुक जाना
हया से सुर्ख कोमल गाल
काली ज़ुल्फ क्या कहिये
समझते हैं निगाहों की ज़ुबां को
आप चुप रहिऐ ।
ये तेरी नर्म नाज़ुक
अंगुलियों का छू जरा जाना
श्वांसें तेज हो जाना
पसीने से नहा जाना
हर एक आहट पे तेरा चौंक जाना
हाय क्या कहिये
समझते हैं निगाहों की ज़ुबां को
आप चुप रहिये ।
कदम तेरे यूँ उठना
छम से गिरना, गिर के रुक जाना
कभी यूँ ही ठिठक जाना
कभी यूँ ही गुजर जाना
अजब सी कशमकश है दिल की हालत
हाय क्या कहिये
समझते हई निगाहों की ज़िबां को
आप चुप रहिये ।
मिलन पर दूर जना
सकपकाना कह नहीं पाना
बिछुडने पर सिसकना
रह न पाना ख्वाब में आना
तेरा हर बार मिलना और बिछुडन
हाय क्या कहिये
समझते हैं निगाहों की ज़ुबां को
आप चुप रहिये ।
डॉ.योगेन्द्र मणि

Saturday, March 21, 2009

गीत / हम भी अंतर मन के स्वर को लिख पाते ...?

गीत

हम भी अंतर मन के स्वर को लिख पाते
शब्दों की परिधी में भाव समा जाते ॥

तेरी आंहें और दर्द लिखते अपने
लिखते हम फिर आज अनकहे कुछ सपने
मरुस्थली सी प्यास भी लिखते होटों की
लिखते फिर भी बहती गंगा नोटों की
आंतों की ऐंठन से तुम न घबराते
हम भी अंतर मन के स्वर को लिख पाते॥


तेरे योवन को भी हम चंदन लिखते
अपनी रग रग का भी हम क्रंदन लिखते
लिख देते हम कुसुम गुलाबी गालों को
फिर भी लिखते अपने मन छालों को
निचुड़े चेहरों पर खंजर आड़े आते हम भी अंतर मन के स्वर को लेख पाते ॥


पीड़ा के सागर में कलम डुबोये हैं
मन के घाव सदा आँखों से धोये हैं
नर्म अंगुलियों का कब तक स्पर्श लिखें
आओ अब इन हाथों का संघर्ष लिखें
लिखते ही मन की बात हाथ क्यों कंप जाते
हम भी अंतर मन के स्वर को लिख पाते ॥


डॉ.योगेन्द्र मणि

Friday, March 20, 2009

दुल्हा बिकाऊ है...? ? ?

दुल्हा बिकाऊ है ? ? ?


हाँ हम लड़के वाले हैं
यह क्या आपके पैरों में छाले हैं
शायद आप लड़की वाले हैं
बिल्कुल मत घबराइये
इधर चले आइये
मनपसंद दुल्हा यहाँ से ले जाइऐ

आई.ए.एस.या आर.ए.एस.चाहिऐ
मात्र15-20 लाख दे जाइऐ
नहीं चाहिऐ
डॉक्टर या इंजीनियर ले जाइऐ
आपको थोड़ी परेशानी तो होगी
पर लड़की का भाग्य खुल जाऐगा
खर्चा मात्र 12-15 हजार आऐगा

क्या कहा मामला जमा नहीं
कुछ कम दे दीजिऐ
हमारे पास वकील भी हैं
इन्हें ले लीजि

पसंद तो आया
मगर दाम नहीं भाया
कोई बात नहीं थोड़ा नीचे उतर जाते हैं
ये सरकारी दफ्तर के शाही बाबू हैं
हलाँकि बे काबू हैं
अपने अफसर के भी वश् में नहीं आते
लेकिन आप चिंता मत कीजिऐ
सब सीधे हो जाऐगें
इनके लिऐ मात्र हम 8हजार लगाऐगैं

यह क्या ,आप तो घबरागये
पसीने से नहा गये
थोड़ा कम दे दीजिऐ
फेक्ट्री का फिटर या आपरेटर ले लीजिऐ
इससे भी सस्ते
चौकीदार और चपरासी भी हैं

इस अध्यापक के विषय में
आपको क्या बताऐं
बुद्धी जीवी प्राणी है
महा ज्ञानी है
इसने न जाने कितने
ज़ाहिलों को इंसान बनाया
ऊँची से ऊँची कुर्सी तक पहुँचाया
लेकिन स्वयं अध्यापक ही रहता है
छात्रों का आक्रोश और उद्दण्डता तक
शालीनता सहता है
आप इसे आजमा कर तो देखिये
आपकी बेटी कितनी भी तीखी बाण
क्यों न हो
बेचारा सब सह लेगा


अच्छी तरह सोच लीजिऐ
यदि कोई पसंद न आये
तो इसे ले लीजिऐ
इसका दाम भी हम क्या बताऐं
जो उचित समझें दे दीजिऐ
वैसे यह बड़ा दयालू है
आप चाहें तो मुफ्त में
ले लीऐ

कवि या साहित्यकार आपको क्या भाऐगे
क्योंकि
इनके विषय में जब भी बात चलाई
जान के लाले पड़ गये
कई बार तो लोग
राशन-पानी लेकर
सीने पर चढ़ गये
हालाँकि बेचारा सीधा साधा
सस्ता जीव है
फिर भी सब कतराते हैं
मुफ्त में लेने से भी घबराते हैं

सांसद ,मंत्री या उनके बेटे
आपको क्या रास आयेगें
उनके बारे में सुनोगे
तो आपके होश ही उड जाऐगे ?
एक तो उनमें कुवारों का स्टॉक
वैसे ही कम है
और क्योंकि वे दहेज विरोधी
आंदोलन के सक्रीय सदस्य हैं
इसलिऐ
गिनने की कोई आवश्यकता नहीं
आँख बंद कर वजन के बराबर
चुपचाप दे जाइये
मनवांछित फल पाइऐ
अपने पूरे खानदान की गरीबी मिटाइऐ

कमाल है आपको कोई पसंद नही आया
यह तो स्टण्डर्ड रेट है
फिर भी नहीं भाया
तो क्या मुफ्त में दुल्हा चाहते हैं ?
आपको मालूम है यहाँ हर माल बिकाऊ है
टिकाऊ की कोई गारंटी नहीं
फिर भी काम चलाऊ है

लगता है देश का नौजवान
चंद सिक्कों के आगे नतमस्तक है
इसलिऐ देश की बालाओं
तुम्हारे
अंतरमन पर द्स्तक है
जागो अब तो जागो
छेड़ दो दहेज रूपी दानव के विरुद्ध संधर्ष
शायद तभी नोटों की खनक से
नपंसक होता नौजवान जागेगा
और दहिज रूपी दानव
हमेशा के लिऐ भागेगा........? ? ?

डॉ.योगेन्द्र मणि

Friday, March 13, 2009

गरीबी हताओ

गरीबी हटाओ

सावधान वे आ रहे हैं
फिर एक बार
आश्वासनों और नारों का पिटारा लेकर
इन्होंने गरीबी हटाओ का नारा लगाया
शत प्रतिशत पूरा कर दिखाया ।

ये अपनी गारीबी हटा चुके हैं
कई महा नगरों में
बंगले बनवा चुके हैं।
आप भी आगे आइये
अपना भविष्य इन्हें थमाइये ।

इनके हाथ मजबूत कीजिए
जिससे देश मजबूत होगा
देश की प्रगती में सहयोग कीजिए
आप भी अपनी गरीबी दूर कीजिए ॥

डॉ.योगेन्द्र मणि
गज़ल
साजिशों का दौर है न उन पे ऐतबार कर
इंसान तू इंसान बन इंसानियत से प्यार कर॥

मिट रही है भुखमरी गरीब को ही मार कर
सुन रहे हैं मुल्क में ज़म्हूरित है कारगर ॥

थाने में हुआ हर तरफ चोर गुंड़ों का बसर
सोचता हूँ मैं यहाँ कैसे होगी अब गुजर ॥

नौजवां तबका खड़ा है डिग्रियों के ढ़ेर पर
रोज़गारी में मगर न हुआ वो कारगर ॥

रोज़ ढ़ोता लाश कांधेपे वो खुद की ड़ाल कर
अब तलक महलों में बैठे वे बनें हैं बेखबर ॥

ड़ॉ.योगेन्द्र मणि

व्यंग्य कविता/हवाई नारे

हवाई नारे दीवार पर लिखा था
यहाँ थूकना मना है
एक सूटिड़-बूटिड़ पढ़े लिखे लगने वाले
श्रीमान ने पढ़ा-
और पान की जुगाली कर
लिखे हुऐ पर ही थूक दिया

हमने जागरुक नागरिक होने के नाते
उन्हें टोका,श्रीमान
आपने पढ़ा नहीं यहाँ थूकना मना है
वरना जुर्माना लगेगा
वह तपाक से बोला-
जुर्माना लगाऐगा कौन...
तेरा बाप.....?
वैसे भी तेरा पेट क्यों दुखता है
तू भी थूक.....!

उधर देखो दीवार पर लिखा है
लिखना माना है
यह आदेश मना करने वाले ने लिखा है
पूरा हिन्दुस्तान
इन्हीं नारों पर टिका है
आपका और हमारा वोट तक
हवाई नारों में बिका है.....?

डॉ.योगेन्द्र मणि

Wednesday, March 11, 2009

आरक्षण

आरक्षण

एक जमाना था
जब दीन हीन, अनुसूचित,पिछ्डा, कहलाने वाला
स्वयं को छिपाता था
जाति सूचक संबोधनों से कतराता था
अब जमाना बदल गया है
हर कोई दीन हीन ,अनुसूचित, पिछड़ा
गरीबी की बाउण्ड्रीवाल के पचास फिट नीचे
दबा हुआ कहलाना चाहता है
जातिगत आरक्षण का पट्टा
गले में लटकाना चाहता है
क्योंकि.....?
धवल वस्त्र धारी तथाकथित नेता रूपी जीव
अपनी कुर्सी के चारों पैरों पर चाहता है
गुड़ पर भिनभिनाती मक्खियों की तरह
चिपके रहने वाले वोटर

वोट का कटोरा लिऐ यह जीव
हर वोटर के हाथ में
आरक्षण का कटोरा थमाने पर अड़ा है
और वोटर
आरक्षण की भीख के लिऐ
सड़कों पर खड़ा है
कोई इन्हें समझाओ
भीख माँगना अपराध है
अब समय आ गया है
सुरसा सा मुँह फैलाऐ खड़े
आरक्षण रूपी दानव के अंत का

जो कभी धर्म के नाम पर
कभी जाति के नाम
कभी पिछड़े के नाम पर
तो कभी सवर्ण के नाम पर
तुम्हें एक दूसरे का खून बहाने के लिऐ
मजबूर करता है

और तुम बन जाते हो तमाशा
राजनैतिक हथकंड़ों का
लेकिन मेरे दोस्त अब जागो
कुर्सियों की जय जय कार में
कीडे मकोडों की तरह मत भागो
आरक्षण रूपी दानव का सर फोड़ो
आपस में
मन से मन के तारों को जोड़ो ॥



डॉ. योगेन्द्र मणि

Tuesday, March 10, 2009

होली मुबारक

रंगों की फुआर में यूँ ही रंगे रहो
बहु्दलीय सरकार से यूँ ही टंगे रहो
बुरान मानो आज किसी ठिठोली का
खुशियों भरा हो रंग हर बरस होली का

डॉ.योगेन्द्र मणि

Sunday, March 8, 2009

चित्र बोलते है......?
ये बेजुबान चित्र बोलते हैं
अपनी कलाई स्वयं खोलते हैं
इस बेजान से प्राणी को देखिये
जिसके चिथड़ों नुमा कपड़ों पर
लगे हैं विदेशी पैबन्द
यदि इन्हें हटा दिया जाय
तब स्पष्ट नजर आयेगा
एक मानव कंकाल.
जिसपर चिपकी सूखी मांस की पर्तें
यह सत्य, अहिंसा,गाँधीवाद,समाजवाद
और न जाने कितने वादों से बना
लोकतंत्र का लबादा ओढ़े
पंचशील के सिद्धान्तों की
लक्ष्मण रेखा के बीच
हाथ में गुट निर्पेक्षता की लाठी लिऐ
सर्व धर्म सम्पन्न शांत खड़ा
कभी कुछ नहीं खाता है
आश्वासनों से काम चलाता है
अपनों ने ही इसे खोखला कर दिया
पड़ोसी पैरों की जमीन तक झपट गये
लेकिन यह मुस्कराता रहा
अपना सब कुछ लुटाता रहा
आप सोचते होंगे
अजाब सर फिरा इंसान है
लेकिन मेरे दोस्त यह बड़ा महान है
कहते हैं इसी का नाम हिन्दुस्तान है
सबसे ऊपर--
आशीर्वाद देने की मुद्रा में
नेत्र बन्द किऐ दाहिना हाथ ऊपर उठाऐ
पद्मासन लगाऐ
चोटी से एडी तक श्वेत वस्त्र धारी
ऊँची सी कुर्सी से चिपका
बांऐ हाथ में कुर्सी का हत्था संभाले
जिसे आप देख रहे हैं
वह बड़ा विचित्र जीव है
यह राष्ट्र निर्माता है
सबका भाग्य विधाता है
प्रत्येक पाँच वर्ष में अवतार लेता है
जनता के घावों को
आश्वासनों से भर देता है
यह दिखता केवल इंसान है
यह महान ही नहीं बड़ा महान है
मंदिर में तो मात्र पत्थर है
लेकिन यह जीता जागता भगवान है
पुरातन इतिहास में
इसका उल्लेख कम ही मिल पाता है
नवीनतम संसकरणों में
यह नेता कहलाता है ॥

डॉ.योगेन्द्र मणि

Tuesday, February 24, 2009

बैसाखी /कविता

बैसाखी
**************
बैसाखी तो बे -साखी है
निर्जीव लाचार
जो स्वयं चलने के लिऎ
सहारा ढ़ूढ़ती है
लेकिन,हम पाल लेते भ्रम
बैसाखियों के सहारे
जीवन गुजार लेने का ।

बैसाखी कितनी भी मजबूत क्यों न हो
हमेशा ढ़ूढ़ती है सहारा लंगडे पैरों का
मगर,
पैर भले ही लंगडा हो
फिर भी कोशिश कर सकता है
अपने शरीर का बोझा उठाने की ।
अपाहिज होते हुऎ भी
दौड़ सकता है सरपट
कंटीली राहों पर
फिर भी न जाने क्यों
लोग करने लगते हैं विश्वास
स्वयं के पैरों से अधिक बैसाखियों का ...?
और.........
भूल जाते हैं
बैसाखी तो स्वयं बेसहारा है
जो ढ़ूढ़ती है सहारा
किसी बेसहारे का
क्योंकि,उसे अपना अस्तित्व
बनाऎ रखना है
स्वयं की मंजिल के लिऎ
तुम्हें अपाहिज बनाऎ रखना
उसकी नियती है
अब जिन्दगी आपकी है
निर्णय आपको लेना है
जिन्दगी गुजारनी है
बैसाखियों के सहारे
या मजबूत बनाने हैं अपने पैर
मंजिल भी है
बैसाखियां भी हैं
और तुम्हारे विश्वास की बाट जोहते
तुम्हारे घोषित लाचार पैर............??


डा.योगेन्द्र मणि



व्यंग्य ,कविता /श्रीमती जी

श्रीमती जी
****************
एक बार ,
श्रीमती जी को न जाने
कैसे एक नेक विचार आया
कि हमारी कुछ रचनाओं के
टुकडे टुकडे कर हमारे ही सामनें
चूल्हे में जा जालाया ।
हम सकपकाये
और धीरे से बड़बड़ाऎ
भाग्यवान..............
यह क्या कर ड़ाला.....?
मेरे जिगर के टुकडे टुकडे कर
मेरे ही सामने जला ड़ाला
तुम्हें मालूम है
कवि दिन रात रोता है
तब जा कर
कविता का जन्म होता है ।

वह तपाक से बोली....
भाड़ में जाऎ
तुम्हारी यह कविता
इस रद्दी को नहीं जलाती
तो खाना कैसे बनाती...?
और आप भी आज देख लिया
तो चिल्ला रहे हैं ।
आपको मालूम है
घर में जब जब
ईंधन का अभाव आया
मैनें इन्हीं रचनाओं से
काम चलाया ।

उनकी समझदारी का राज
हम आज समझ पाऎ
फिर भी होट फडफडाऎ
प्रिय..........!
क्या तुमने पहले भी
रचनाओं को जलाया...?

वह तपाक से बोली-
नहीं जलाती तो खाना कैसे बनाती
क्या मैं स्वयं जल जाती...?
मगर स्वयं भी कैसे जलती
एक महीने से केरोसिन की पीपियां
खाली हैं
कल से आटे के कन्सतर में भी
कंगाली है
घी का डब्बा हो गया तली तक खाली
और शक्कर,
आज उसने भी हड़ताल कर ड़ाली

लेकिन ...
आपकी समझ में कहाँ आती है
कान पर जूँ तक कहाँ रैंग पाती है
कितनी बार समझाया
कि ऎसा लिखो
जो छप जाऎ बिक जाऎ
सरकारी सम्मान पाऎ
मौके का फायदा क्यों नहीं उठाते
मंन्त्री जी के रिश्तेदार
क्यों नहीं बन जाते...?
यदि गघे को बाप बनाने से
अपना उल्लू सीधा हो जाए
तो उसमें आपका क्या जाता है
बाप तो फिर भी
बाप कहलाता है

लेकिन ,
हम उन्हें कैसे समझाते
कि यह लिखनी स्वतंत्र है
जो उचित होगा लिखेगी
अंतिम क्षण तक संघर्ष करेगी
मगर तिजोरी की कैद
कभी स्वीकार नहीं करेगी॥

डा. योगेन्द्र मणि

व्यंग्य

नेता बनाम कुत्ता
-------------------------
तथाकथित पेशेवर नेता को
कुत्ते ने काटा।
कुत्तों की पूरी जमात ने उसे ड़ांटा
यह तूने क्या कर ड़ाला
जिसका काटा
आई।ए।एस अफ़सर तक
पानी नहीं माँगता
तूने उसे काट ड़ाला।
यदि तेरे काटने से
नेता जी में
वफ़ादारी का गुण आ गया
और तुझपर
नेताजी का खून असर जमा गया
तो हम बरबाद हो जायेगें
राह चलते लोग तुझे
नेता बतलायेगें ।
काश........!
देश के सारे नेताओं को
कुत्ते से कटवा दिया जाए
और नेताओं में
थोड़ा सा भी अंश
वफ़ादारी का आ जाऎ
तो मेरा देश महान का सपना
साकार हो जाऎ....॥

डा. योगेन्द्र मणि
१/२५६ गणेश तालाब, कोटा ३२४००९
मो.९३५२६१२९३९