Tuesday, February 24, 2009

बैसाखी /कविता

बैसाखी
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बैसाखी तो बे -साखी है
निर्जीव लाचार
जो स्वयं चलने के लिऎ
सहारा ढ़ूढ़ती है
लेकिन,हम पाल लेते भ्रम
बैसाखियों के सहारे
जीवन गुजार लेने का ।

बैसाखी कितनी भी मजबूत क्यों न हो
हमेशा ढ़ूढ़ती है सहारा लंगडे पैरों का
मगर,
पैर भले ही लंगडा हो
फिर भी कोशिश कर सकता है
अपने शरीर का बोझा उठाने की ।
अपाहिज होते हुऎ भी
दौड़ सकता है सरपट
कंटीली राहों पर
फिर भी न जाने क्यों
लोग करने लगते हैं विश्वास
स्वयं के पैरों से अधिक बैसाखियों का ...?
और.........
भूल जाते हैं
बैसाखी तो स्वयं बेसहारा है
जो ढ़ूढ़ती है सहारा
किसी बेसहारे का
क्योंकि,उसे अपना अस्तित्व
बनाऎ रखना है
स्वयं की मंजिल के लिऎ
तुम्हें अपाहिज बनाऎ रखना
उसकी नियती है
अब जिन्दगी आपकी है
निर्णय आपको लेना है
जिन्दगी गुजारनी है
बैसाखियों के सहारे
या मजबूत बनाने हैं अपने पैर
मंजिल भी है
बैसाखियां भी हैं
और तुम्हारे विश्वास की बाट जोहते
तुम्हारे घोषित लाचार पैर............??


डा.योगेन्द्र मणि



2 comments:

  1. अब जिन्दगी आपकी है
    निर्णय आपको लेना है
    जिन्दगी गुजारनी है
    बैसाखियों के सहारे
    या मजबूत बनाने हैं अपने पैर
    मंजिल भी है
    बैसाखियां भी हैं
    और तुम्हारे विश्वास की बाट जोहते
    तुम्हारे घोषित लाचार पैर............??

    सशक्त कविता

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  2. प्रेरणा देती बढिया कविता

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