Wednesday, December 30, 2009

फिर एक बार // कविता

फिर एक बार
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आओ....
बदल डालें दीवार पर
लटके कलेन्डर
फिर एक बार,

इस आशा के साथ
कि-
शायद इसबार हमें भी मिलेगा
अफसर का सद व्यवहार
नेता जी का प्यार
किसी अपने के द्वारा
नव वर्ष उपहार.

सारे विरोधियों की
कुर्सियां हिल जाऐं
मलाईदार कुर्सी
अपने को मिल जाऐ.

सुरसा सी मँहगाई
रोक के क्या होगा ?
चुनावी मुद्दा है
अपना भला होगा .

जनता की क्यों सोचें ?
उसको तो पिसना है
लहू बन पसीना
बूँद-बूँद रिसना है

रिसने दो, देश-हित में
बहुत ही जरूरी है
इसके बिन सब
प्रगति अधूरी है.

प्रगति के पथ में
एक साल जोड दो
विकास का रथ लाकर
मेरे घर पे छोड दो.

बदल दो कलेन्डर
फिर एक बार
आगत का स्वागत
विगत को प्रणाम
फिर एक बार......!!

डॉ.योगेन्द्र मणि

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