Friday, November 27, 2009

मैं भी पी लूँ

मैं भी पी लूँ
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वे पीते हैं , मैं भी पी लूँ
सोचा था ऐसे ही जी लूँ
मेरी जान की दुश्मन दुनिया
यूँ ही कब जीने देती है
चुपचाप कहाँ पीने देती है...?

प्याले से कोई मदिरालय में
कोई पीता देवालय में
ज्ञान की सरिता बहाने वाला
देखो पीता विद्यालय में

मंत्री मंत्रालय में पीता
कोई पीता सचिवालय में
चपरासी बाहर ही पीता
अफसर पीता कार्यालय में

सेठ चोर साहूकार दरोगा
नैनों ही नैनों से पीते
अबला की योवन रस गगरी
पीते देखे वैशालयों में

लेकिन मैनें भी पीना चाहा
नये सिरे से जीन चाहा
तुम बोल उठे कि मैं पीता हूँ
तुम सा ही जीवन जीता हूँ

रक्त रूप योवन और मदिरा
तुम पीते मैं कब पीता हूँ
जब भी हुआ विवाद
सदा ही तुम जीते मैं कब जीता हूँ

अपनी ही सूनी आँखों के
केवल अश्रु नीर पीता हूँ
खुशियों की छितराई गुदडी
गम की सूंई से सीता हूँ

सोचा था ऐसे ही जी लूँ

वे पीते हैं मैं भी पी लूँ....॥


डॉ. योगेन्द्र मणि