Thursday, April 30, 2009

आदमी को कहाँ- कहाँ खोजें.....

आदमी को कहाँ-कहाँ खोजें
यहाँ सब खोखले घर बार नजर आते हैं ॥

हाय जम्हूरियत है ये कैसी
गोलियों के चलन भरमार नजर आते हैं ।।

इतने चुप क्यों हैं मजरा क्या है
आप मजबूरी का अवतार नजर आते हैं ।।

क्या हुआ पोलियो अरमानों को
आप किस्मत से ही लाचार नजर आते हैं ॥

उसको सज़दा करें या ठुकराऐं
खुदा के वेष में बटमार नजर आते हैं ।।

लहू है गर्म जिस्म ठंड़ा क्यों
दिलो दीमाग से बीमार नजर आते हैं ॥

डॉ.योगेन्द्र मणि

Tuesday, April 28, 2009

यूँ गुजरते रहे जाने कितने बरस

यूँ गुजरते रहे जाने कितने बरस
हम बहारों को ही ताकते रह गये
हो गये दिन हवा जाने ये क्या हुआ
हम गुबारों को ही ताकते रह गये।

बरसों से टिकि आस पर सांस है
डिग्रियों की गले में पडी फांस है
आप रग रग में नश्तर चुभाते रहे
हम बीमारों को ही ताकते रह गये।

आपका राज है कर लो जितने सितम
सूखी आंतें लगें ज़ुल्फ के जैसे ख़म
आप सागर में मौजे मनाते रहे
हम किनारों को ही ताकते रह गये ।

ख्वाब में हम घरोंदे बनाते रहे
ज़ख्म अपने ही खुद सहलाते रहे
खो गये आप जाने कहाँ खॊ गये
हम कतारों को ही ताकते रह गये ॥

Saturday, April 25, 2009

इस चमन की अब हिफ़ाजत आपके हाथों मे है

उन शहीदों की विरासत आपके हाथों में है
इस चमन की अब हिफ़ाजत आपके हाथों में है

नाम गाँधी का कलंकित और हो पाये नहीं
देश संसद की सजावट आपके हाथों में है

आपके हाथों में है इस देश की पतवार अब
शहर भर की अब बसावट आपके हाथों में है

अब कोई जयचन्द अपना सर उठा पाये नहीं
इतिहास की हर एक लिखावट आपके हाथों में है ।।



Thursday, April 23, 2009

आजादी की रेल
आजदी की देखो रेल धक्का - मुक्की पेलम - पेल
उनकी तो हर रोज दिवाली तेरे घर में बीता तेल।
आतंकवाद का रिसता फोड़ा देखो अब नासूर बना
मेहनतकश की झोंपड़ियों से अभी उजाला दूर घना
भ्रष्टाचार की फसल बो रहे देखो ये सरकारी अफसर
काट -बांट घर ले जाते हैं राजनीति छुट्भैय्ये वर्कर
राजनीति की चालें झेल आजादी की देखो रेल........॥


मंदिर मस्जिद मसला गाओ भूख गरीबी से तर जाओ
राम रहीम के लहू से भीगे बन्देमातरम्‌ मिलकर गाओ
नागफणी की बाढ़ लगी है शुद्ध हवा आयात कराओ
आश्वासन ही मूल मंत्र हो काम न एक छदाम कराओ
राम कृष्ण कुर्सी का खेल आजादी की देखो रेल..............॥


घोटालों पर घोटाला उस पर आयोगों का ताला
बोफोर्स तोप पर जंग लगी हर्षद ने बम चला डाला
आयोगों पर हैं आयोग अजब लगा देखो यह रोग
सत्ता तो अपनी रखैल है जितना चाहे उतना भोग
जाँच हो गई सारी फेल आजादी की देखो रेल........॥


जाग रे भैय्या उसे जगा कदम बढ़ा और आगे आ
क्रान्ती बीज खेतों में बो दे तभी बहेगी शुद्ध हवा
अंधकर का तोड़ो जाल हाथों में ले आज मशाल
गद्दारों के डाल नकेल सरपट दौडेगी फिर रेल
पाप ये उनके अब मत झेल आजादी की ..............॥


डॉ.योगेन्द्र मणि

Wednesday, April 22, 2009

दूर-दृष्टी

दूर-दृष्टी

कडी मेहनत दूर दृष्टी
कडी मेहनत कीजिऐ
पेट की सूखी आँतों को
खूंटी पर टांग दीजिऐ
क्योंकि
आपके पसीने से विदेशी ‌ऋण चुकाऐगें
प्रतिफल में आपको आश्वासन
मिल जायेगें
आप आश्वासन पहिनिऐ
आश्वासन ओढिये
आश्वासन खाइए
आश्वासन आने वाली
पीढी को दे जाइऐ।
दूर-दृष्टी से काम लीजिऐ
भावी पीढ़ी को
कड़ी मेहनत की सीख दीजिऐ ।
और
अच्छी तरह समझा दीजिऐ
सारे जहाँ से अच्छा
हिन्दूस्ता हमारा........!
क्योंकि हम-
गाँधी वादी हैं
सरकारी विचारधारा
समाजवादी है
संविधान धर्मनिरपेक्ष
तथाकथित नेता अवसरवादी हैं
शायद ,इसीलिऐ कहलाता है
मेरा देश महांन ----?
टूटी चप्पल घिसता
पढ़ा-लिखा नौजवान
जनता आतंकवाद ,कुपोषण
भुखमरी की शिकार
फिर भी
तथाकथित नेता
बने पहलवान ॥

डॉ.योगेन्द्र मणि

Monday, April 20, 2009

संसद

संसद
संसद वह रमणीय स्थल है
जहाँ सांसद नामक सभ्यजीव दम भरते हैं
लोकतंत्र,समाजवाद और गाँधीवाद के
वहाँ पड़े शवों की निगरानी करने का
मगर आये दिन फाडे जाते हैं
इन राष्ट्रीय शवों के कफन
लगाई जाती है अनुशासन की गुहार
आपस में की जाती है
गालियों घूंसों और जूतों की बौछार
जहाँ हर सत्र में
बहुमत(..?) द्वारा बनाये जाते हैं
बहुमत को कुचलने के लिऐ
नित नये कानून
जिनकी एक ही मंजिल है
एक ही योजना है
कैसे उतारी जाऐ
जनता के शरीर से ऊन........??
डॉ.योगेन्द्र मणि

Tuesday, April 7, 2009

मेरे शहर की बस

मेरे शहर की बस
मस्तानी चाल से सड़कों पर रैंगती
मेरे शहर की बस
बस क्योंकि बस है
जो संसद सत्र की तरह
कभी भी रुक सकती है
चल सकती है
दल बदलू नेता की तरह
चलते चलते रास्ता तक
बदल सकती है
इसकी इस आदत से बलि के बकरे सा
प्रत्येक यात्री विवश
मेरे शहर की बस...........॥

तीन की सीट पर चिपके हैं छः छः
सीट भी अपाहिज हैं कुछ अपनी टागों से
कुछ टूटी कमर से लाचार
जो यात्री खडे हैं
उन्हें देख के हर कोई कह सकता है
कि इन्हें दरवाजे से नहीं
छत खोल के ऊपर से जमाया गया है
यात्री शुद्ध हवा का सेवन कर सकें
इसलिऐ खिडकियों से शीशा हटाया गया है
दरवाजा तक लगाने का कष्ट
किसीको नहीं उठाना पडता
क्योंकि दरवाजा है ही नहीं ॥

बस के चलने से पहले
कण्डक्टर ने दो चार यात्रियों को
बस में घुसाने के लिऐ
बस का निरीक्षण कुछ इस तरह से किया
जैसे कर्तव्यनिष्ठ अध्यापक
अपने प्रिय छात्र की उत्तर पुस्तिका में
देखता है कि
अंक बढ़ाने का स्थान कहाँ शेष है
और संभावना न होते हुऐ भी
लाद दिया जाता है
अंकों का बोझ बेचारी उत्तर पुस्तिका पर॥

यह कण्डक्टर भी जन सुविघाओं को
ध्यान में रखते हुऐ
टांग देता है कुछ ओर सवारियां
ठीक इस तरह जैसे जनरल स्टोर पर
कुछ आकर्षक नमूने
दुकान के बाहर लटकते हैं
और जिस प्रकार दुकानदार
इन नमूनों का उपयोग
दुकानदारी चलाने के लिऐ करता है
यह कण्डक्टर इन सवारियों का उपयोग
बस के बार बार रूकजाने पर
बस में धक्का लगवाकर
बस चलवाने के लिऐ करेगा ॥

चलते समय बस के इंजन के साथ
ढ़ाचे की आवाज
जैसे गुलाम अली की गज़ल के साथ
भप्पी लहरी का डिस्को संगीत
बस के चारों ओर अंदर- बाहर
उखडी धंसी कीलों का व्यवहार
जैसे खूबसूरत युवतियों के साथ
जवान मनचलों की छेड-छाड ॥

शहर में एक अजनबी ने
ऐसा सुन्दर दृष्य
शायद पहली बार देखा
उसने हमें रोका और बोला
भाईसाहब-
इन यात्रियों को बस से बाहर
कैसे निकाला जायेगा...?
इससे पहले कि हम कुछ कह पाते
वह बोला हम समझ गये
जरूर इस बस की छत में
कोई ढ़क्कन लगा है
जहाँ से रास्ते की सवरियों को
निकाला और लटकाया जायेगा
अंतिम स्टेशन पर
बस की छत को उखाडेगें
फिर उल्टा करके हिलाऐगें
जिससे थैले में भरी रेजगारी की तरह
सभी यात्री जमीन पर पसर जाऐगें ॥

उनके इस सारगर्भित वक्तव्य के बाद
हमारी दलील ठीक इस तरह बेकार थी
जैसे गृह मंत्राणी के सामने हमारा
विवेकपूर्ण वक्तव्य ॥

हम उन्हें कैसे समझाते
कि यह कोई मंदिर की दानपेटी नहीं
जिसमें जब चाहा रुपया डलवा दिया
जब चाहा उल्टा कर हिला दिया
अपनी बारी आयेगी
तब सारी कलाकारी धरी रह जाऐगी
बस में चढ़ने और उतरने की कला
अपने आप आ जाऐगी ॥

डॉ. योगेन्द्र मणि




Sunday, April 5, 2009

गीत// बिजली का कड़कना

गीत
ये बिजली का कड़कना
आँख मिलना,मिलके झुक जाना
ये नाज़ुक लब फड़कना
कह न पाना ,यूँ ही रुक जाना
हया से सुर्ख कोमल गाल
काली ज़ुल्फ क्या कहिये
समझते हैं निगाहों की ज़ुबां को
आप चुप रहिऐ ।
ये तेरी नर्म नाज़ुक
अंगुलियों का छू जरा जाना
श्वांसें तेज हो जाना
पसीने से नहा जाना
हर एक आहट पे तेरा चौंक जाना
हाय क्या कहिये
समझते हैं निगाहों की ज़ुबां को
आप चुप रहिये ।
कदम तेरे यूँ उठना
छम से गिरना, गिर के रुक जाना
कभी यूँ ही ठिठक जाना
कभी यूँ ही गुजर जाना
अजब सी कशमकश है दिल की हालत
हाय क्या कहिये
समझते हई निगाहों की ज़िबां को
आप चुप रहिये ।
मिलन पर दूर जना
सकपकाना कह नहीं पाना
बिछुडने पर सिसकना
रह न पाना ख्वाब में आना
तेरा हर बार मिलना और बिछुडन
हाय क्या कहिये
समझते हैं निगाहों की ज़ुबां को
आप चुप रहिये ।
डॉ.योगेन्द्र मणि