Monday, July 27, 2009

गीत

यूँ गुजरते रहे जाने कितने बरस
हम बहारों को ही ताकते रह गये
हुऐ दिन हवा जाने कब क्या हुआ
हम गुबारों को ही ताकते रह गये ॥

बरसों से टिकी आस पर सांस है
डिग्रियों की गले में पडी फांस है
आप रग रग में नश्तर चुभोते रहे
हम बीमारों को ही ताकते रह गये ॥

है मेरे गाँव की फाइलों में सड़क
बिन पानी गई सारी मिट्टी तिडक
झूंठी पत्तल में बचपन झगडता रहा
हम सितारों को ही ताकते रह गये ॥

आप पर तो रहा है खुदा का करम
सूखी आंते लगें जुल्फ के जैसे खम
आप सागर में मौजें मनाते रहे
हम किनारों को ही ताकते रह गये ॥

ख्वाब में हम धरोंदें बनाते रहे
ज़ख्म अपने ही खुद सहलाते रहे
खॊ गये आप जाने कहाँ खो गये
हम कतारों को ही ताकते रह गये ॥


डॉ. योगेन्द्र मणि

3 comments:

  1. यूँ गुजरते रहे जाने कितने बरस
    हम बहारों को ही देखते रह गये
    हुऐ दिन हवा जाने कब क्या हुआ
    हम गुबारों को ही देखते रह गये

    बहुत ही बढ़िया रचना . बहुत खूब

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  2. wah yogender ji, sunder rachna, sabhi jagah "dekhte rah gaye " karen ya "taakte rah gaye" to shayad theek hoga.

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