Tuesday, April 7, 2009

मेरे शहर की बस

मेरे शहर की बस
मस्तानी चाल से सड़कों पर रैंगती
मेरे शहर की बस
बस क्योंकि बस है
जो संसद सत्र की तरह
कभी भी रुक सकती है
चल सकती है
दल बदलू नेता की तरह
चलते चलते रास्ता तक
बदल सकती है
इसकी इस आदत से बलि के बकरे सा
प्रत्येक यात्री विवश
मेरे शहर की बस...........॥

तीन की सीट पर चिपके हैं छः छः
सीट भी अपाहिज हैं कुछ अपनी टागों से
कुछ टूटी कमर से लाचार
जो यात्री खडे हैं
उन्हें देख के हर कोई कह सकता है
कि इन्हें दरवाजे से नहीं
छत खोल के ऊपर से जमाया गया है
यात्री शुद्ध हवा का सेवन कर सकें
इसलिऐ खिडकियों से शीशा हटाया गया है
दरवाजा तक लगाने का कष्ट
किसीको नहीं उठाना पडता
क्योंकि दरवाजा है ही नहीं ॥

बस के चलने से पहले
कण्डक्टर ने दो चार यात्रियों को
बस में घुसाने के लिऐ
बस का निरीक्षण कुछ इस तरह से किया
जैसे कर्तव्यनिष्ठ अध्यापक
अपने प्रिय छात्र की उत्तर पुस्तिका में
देखता है कि
अंक बढ़ाने का स्थान कहाँ शेष है
और संभावना न होते हुऐ भी
लाद दिया जाता है
अंकों का बोझ बेचारी उत्तर पुस्तिका पर॥

यह कण्डक्टर भी जन सुविघाओं को
ध्यान में रखते हुऐ
टांग देता है कुछ ओर सवारियां
ठीक इस तरह जैसे जनरल स्टोर पर
कुछ आकर्षक नमूने
दुकान के बाहर लटकते हैं
और जिस प्रकार दुकानदार
इन नमूनों का उपयोग
दुकानदारी चलाने के लिऐ करता है
यह कण्डक्टर इन सवारियों का उपयोग
बस के बार बार रूकजाने पर
बस में धक्का लगवाकर
बस चलवाने के लिऐ करेगा ॥

चलते समय बस के इंजन के साथ
ढ़ाचे की आवाज
जैसे गुलाम अली की गज़ल के साथ
भप्पी लहरी का डिस्को संगीत
बस के चारों ओर अंदर- बाहर
उखडी धंसी कीलों का व्यवहार
जैसे खूबसूरत युवतियों के साथ
जवान मनचलों की छेड-छाड ॥

शहर में एक अजनबी ने
ऐसा सुन्दर दृष्य
शायद पहली बार देखा
उसने हमें रोका और बोला
भाईसाहब-
इन यात्रियों को बस से बाहर
कैसे निकाला जायेगा...?
इससे पहले कि हम कुछ कह पाते
वह बोला हम समझ गये
जरूर इस बस की छत में
कोई ढ़क्कन लगा है
जहाँ से रास्ते की सवरियों को
निकाला और लटकाया जायेगा
अंतिम स्टेशन पर
बस की छत को उखाडेगें
फिर उल्टा करके हिलाऐगें
जिससे थैले में भरी रेजगारी की तरह
सभी यात्री जमीन पर पसर जाऐगें ॥

उनके इस सारगर्भित वक्तव्य के बाद
हमारी दलील ठीक इस तरह बेकार थी
जैसे गृह मंत्राणी के सामने हमारा
विवेकपूर्ण वक्तव्य ॥

हम उन्हें कैसे समझाते
कि यह कोई मंदिर की दानपेटी नहीं
जिसमें जब चाहा रुपया डलवा दिया
जब चाहा उल्टा कर हिला दिया
अपनी बारी आयेगी
तब सारी कलाकारी धरी रह जाऐगी
बस में चढ़ने और उतरने की कला
अपने आप आ जाऐगी ॥

डॉ. योगेन्द्र मणि




1 comment:

  1. bhai wah yogendra ji bus ka kya chitra, alankaron ke saath kheencha hai. bahut khoob.

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