Tuesday, April 28, 2009
यूँ गुजरते रहे जाने कितने बरस
यूँ गुजरते रहे जाने कितने बरस
हम बहारों को ही ताकते रह गये
हो गये दिन हवा जाने ये क्या हुआ
हम गुबारों को ही ताकते रह गये।
बरसों से टिकि आस पर सांस है
डिग्रियों की गले में पडी फांस है
आप रग रग में नश्तर चुभाते रहे
हम बीमारों को ही ताकते रह गये।
आपका राज है कर लो जितने सितम
सूखी आंतें लगें ज़ुल्फ के जैसे ख़म
आप सागर में मौजे मनाते रहे
हम किनारों को ही ताकते रह गये ।
ख्वाब में हम घरोंदे बनाते रहे
ज़ख्म अपने ही खुद सहलाते रहे
खो गये आप जाने कहाँ खॊ गये
हम कतारों को ही ताकते रह गये ॥
हम बहारों को ही ताकते रह गये
हो गये दिन हवा जाने ये क्या हुआ
हम गुबारों को ही ताकते रह गये।
बरसों से टिकि आस पर सांस है
डिग्रियों की गले में पडी फांस है
आप रग रग में नश्तर चुभाते रहे
हम बीमारों को ही ताकते रह गये।
आपका राज है कर लो जितने सितम
सूखी आंतें लगें ज़ुल्फ के जैसे ख़म
आप सागर में मौजे मनाते रहे
हम किनारों को ही ताकते रह गये ।
ख्वाब में हम घरोंदे बनाते रहे
ज़ख्म अपने ही खुद सहलाते रहे
खो गये आप जाने कहाँ खॊ गये
हम कतारों को ही ताकते रह गये ॥
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बरसों से टिकि आस पर सांस है
ReplyDeleteडिग्रियों की गले में पडी फांस है
आप रग रग में नश्तर चुभाते रहे
हम बीमारों को ही ताकते रह गये।
sunder rachna yogendra ji.badhai